संदीप कंवल भुरटाना

संदीप कंवल भुरटाना का जन्म 7 जुलाई 1987 को हरियाणा में हुआ। आप बवानी खेड़ा (भिवानी) के निवासी हैं।

आपने चौ. देवीलाल विश्वविद्यालय, सिरसा से मॉस कम्युनिकेशंस में मास्टर्स करने के बाद बी.एड किया।

'हरिभूमि दैनिक' में 45 दिन का प्रशिक्षण लिया व 'सच कहूँ दैनिक पत्र' में सह-संपादन किया। हरियाणवी लेखन के अतिरिक्त आपको पठन-पाठन, संगीत, गायन व क्रिकेट का शौक है।

 

 

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गया बख्त आवै कोन्या

गया बख्त आवै कोन्या, ना रहरे माणस श्याणे
पहल्म बरगा प्यार रहया ना, इब होरे दूर ठिकाणे॥

पहले जैसा कोन्या रहया, यार और व्यवहार कती
बीर-मर्द की कोन्या रही रै, घर महै ताबेदार कती
माणस माणस बैरी होरया, कोन्या बसै पार कती
भीड पडी महै धोखा देज्या, साढू रिश्तेदार कती
बाहण नै भाई इब प्यारा कोन्या, सगे होज्या सै बिराणे।
पहल्म बरगा प्यार रहया ना, इब होरे दूर ठिकाणे॥

मात पिता की कद्र करणीया, ना कोए इसा लाल यहां
छोटे बडे की शर्म रही ना, इसा होरया बुरा हाल यहां
गात समाई रहरी कोन्या, सबै मेरा मेरी चाल यहां
साधु संत का बाणा कोन्या, लुटै सारै माल यहां
बडेरा भी इब खता खाज्या, लावै घर महै उल्हाणे।
पहल्म बरगा प्यार रहया ना, इब होरे दूर ठिकाणे॥

कोर्ट के महै चलै मुकदमे, फेर भी कोए समाधान नहीं
कहै पाच्छै के फिरजा रै, इब खरी वा जुबान नहीं
मण मण बोरी ठाले भाई, गोडा मै इब वा जान नहीं
धन दौलत कै पाच्छै भाजै, हर महै कोए ध्यान नहीं
जमींदार नु मारा फिरै, मेरे होज्या दो दाणे।
पहल्म बरगा प्यार रहया ना, इब होरे दूर ठिकाणे॥

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मुर्रा नस्ल की भैंस | कविता

म्हारे हरियाणे की या आन-बान-शान सै।
मुर्रा नस्ल की झोटी का जग म्हं नाम सै ।।

मुर्रा नस्ल की भैंस म्हारी बाल्टा दूध का ठोकै सै,
म्हारे गाबरू इस दूध नै किलो-किलो झौके सै,
खल-बिनौला गैल्या, खावै काजू-बदाम सै
मुर्रा नस्ल की झोटी का जग म्हं नाम सै ।।

ढाई लाख की झौटी बेच के कर दिया कमाल,
गरीब किसान था भाइयो इब होग्या मालामाल,
जमींदार खातर या भैंस, सोने की खान सैै।
मुर्रा नस्ल की झोटी का जग म्हं नाम सै ।।

पाणी का दूध बिकै शहर म्हं हालात माडे़ होरे सैं,
समोसे बरगी छोरी सै औडे, सिगरेट बरगे छोरे सैं,
घणे पतले होरे सैं वें, गोड्या म्हं उनके जान सै,
मुर्रा नस्ल की झोटी का जग म्हं नाम सै ।।

चलाके मोटर भैंस नुवांवा, भाई तारा कमाल सै,
संदीप कंवल भुरटाणे आला, राखै देखभाल सै,
म्हारी खारकी झोटी पै पूरे गाम नै मान सै।
म्हारे हरियाणे की या आन-बान-शान सै।
मुर्रा नस्ल की झोटी का जग म्हं नाम सै ।।

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मन्नै छोड कै ना जाइए | कविता

मन्नै छोड कै ना जाइए,
मेरे रजकै लाड़ लड़ाइए,
अर मन्नै इसी जगां ब्याइए,
जड़ै क्याकैं का दुख ना हो।

छिक के रोटी खाइए,
अर मन्नै भी खुवाइए,,
जो चाहवै वो ए पाइए,
पर मन्नै इसी जगां ना ब्याइए,
जड़ै क्याकैं का सुख ना हो।

माँ तेरे पै ए आस सै,
पक्का ए विश्वास सै,
तू ए तो मेरी खास सै,
यो खास काम करके दिखाइए।

माँ की मैं दुलारी सुं,
ब्होत ए घणी प्यारी सुं,
दिल तैं भी सारी सुं,
पर कदे दिल ना दुखाइए।

बाबु का काम करणा,
रूपए जमा करके धरणा,
इन बिना कती ना सरणा,
काम चला कै दिखाइए।

गरीबी तै तनै लड़-लड़कै,
रातां नै खेतां म्हं पड़-पड़कै,
अपणे हक खातर अड़-अड़कै,
बाबु ब्होत ए धन कमाइए,
पर मन्नै इसी जगां ना ब्याइए
जडै क्याएं का सुख ना हो।

माँ-बाबु तामै मन्नै पालण आले,
मेरे तो ताम आखर तक रूखाले,
वे इबे मन्नै ना सै देखे भाले,
कदे होज्या काच्ची उम्र म्हं चालै,
'संदीप भुरटाणे' आले मन नै समझाइए,
पर मन्नै इसी जगां ना ब्याइए,
जडै क्याएं का सुख ना हो।

-संदीप कंवल भुरटाना

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बुढ़ापा बैरी आग्या इब यो | कविता

बुढ़ापा बैरी आग्या इब यो, रही वा जकड़ कोन्या।
छाती तान के चाला करता, रही वा अकड़ कोन्या।।

जवानी टेम यो खेत म्हं हाली, रहया था पूरे रंग म्हं,
आंदी रोटी दोपहर कै म्हं, खाया ताई के बैठ संग म्ह,
सूखा पेड़ की ढाला यो इब, रही वा लकड़ कोन्या।
छाती तान के चाला करता, रही वा अकड़ कोन्या।।

बेटां नै घर तै काढ दिया, लेग्ये जमीन धोखे म्हं,
हरा-भरा घर उजड़गा, बिन पाणी के सोके म्हं,
करड़ा घाम गेर दिया रै, रहा वा इब झड़ कोन्या
छाती तान के चाला करता, रही वा अकड़ कोन्या।।

आज का बख्त इतना करड़ा कर दिये लाचार तनै,
बुढापा की मार इसी मारदी, कर दिये बीमार तनै,
रंग रूप सब बदल दिया, रही वा धड कोन्या
छाती तान के चाला करता, रही वा अकड़ कोन्या।।

कह संदीप कंवल भुरटाणे आला, बूढां नै ना सताईयो रै,
अपणे मात-पिता की सेवा करियो, दूध ना लज्जाईयो रै
धूजण लागै हाथ मेरे इब, रही वा पकड़ कोन्या।
छाती तान के चाला करता, रही वा अकड़ कोन्या।।

- संदीप कंवल भुरटाना

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