हरियाणवी कड़के (साहित्य)

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Author: हरियाणवी जन-माणस

खाओ पीओ, छिको मत
चालो फिरो, थक्को मत
बोलो चाल्लो, बक्को मत
देखो भालो, ताक्को मत।

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ठाढा मारै - रोवण दे ना
खाट खोस ले -सोण दे ना

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जिस खेत मैं खसम ना जा
वो खेत खसम नै खा।

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जिस घर बड्डा ना मानिये, ढोरी पड़ै ना घास
सास-बहू की हो लड़ाई, उज्जड़ हो-ज्या बास ।

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तन का उजला मन का काळा, बुगले जिसा भेस
इसां तै तो काग भला जो बाहर भीतर एक

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अगेती फसल और अगेती मार करणियां की होवै ना कदे बी हार।

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आपणा मारे छाया में गेरे

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आँधे की माक्खी राम उड़ावै।

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काका कहे त कोए काकडी ना दे।

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झोटे-झोटे लड़ैं, झाड़ियां का खो।

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एक घर तै डायण भी छोड दिया करै।

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जूती तँग अर्र रिश्तेदार नंग, सारी जगहां सेधैं।

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काम का ना काज का ... ढाई मण अनाज का

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के तो बाबा रेल मैं - के ज्यागा जेल मैं।

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खाद पड़ै तै खेत, अर्र नांह तै कूड़ा रेत।

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घी सुधारै खीचड़ी, अर्र बड्डी बहू का नाम।

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जिसनै करी सरम, उसके फूटे करम।

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जिसनै चलणी बाट, उसनै किसी सुहावै खाट।

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बिटोड़े में तै गोस्से ए लिकड़ैंगे

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भैंस आपणे रंग नै ना देखै, छतरी नै देख कै बिदकै

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सूधी छिपकली घणे माछर खावै

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हारे ओड़ कै दो लठ फालतू लाग्या करैं

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विशेष: यदि आप हरियाणवी कड़के, मुहावरे या लोकोक्तियों का ज्ञान रखते हैं या आपके पास ये किसी प्रकार से उपलब्ध हैं तो कृपया इन्हें 'म्हारा हरियाणा' से सांझा करें।

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