देखे मर्द नकारे हों सैं गरज-गरज के प्यारे हों सैं। भीड़ पड़ी म्हं न्यारे हों सैं तज के दीन ईमान नैं॥
जानकी छेड़ी दशकन्धर नै, गौतम कै गया के सोची इन्द्र नै। रामचन्द्र नै सीता ताहदी, गौरां शिवजी नै जड़ तै ठादी हरिश्चन्द्र नै भी डायण बतादी के सोची अज्ञान नै॥
मर्द किस-किस की ओड़ घालदे, डबो दरिया केसी झाल दे। निहालदे मेनपाल नै छोड़ी, जलग्यी घाल धर्म पै गोड़ी । अनसूइया का पति था कोढ़ी वा डाट बैठग्यी ध्यान नै॥
मर्द झूठी पटकैं सैं रीस, मिले जैसे कुब्जा से जगदीश। महतो नै शीश बुराई धरदी, गौतम नै होकै बेदर्दी। बिना खोट पात्थर की करदी खोकै बैठग्यी प्राण नै॥
कहैं सै जल शुद्ध पात्र म्हं घलता ‘लखमीचन्द' कवियों म्हं रळता। मिलता जो कुछ करया हुआ सै, छन्द कांटे पै धरया हुआ सै। लय दारी म्हं भरया हुआ सै, देखो तो मिजान नै॥
-पं लखमीचन्द |