कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का- आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही-- हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही। हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही-- भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही॥
चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का-- आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे-- दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे। बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे-- मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे॥
एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का-- आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये-- माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये। माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए-- फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए।
तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का-- आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया-- भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया! देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया-- छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया।
कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का। आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥
--कवि नरसिंह |