दीवाळी

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 कवि नरसिंह

कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का-
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥

कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही--
हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही।
हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्याँ कानी तैं टूट रही--
भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही॥

चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का--
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥

सारे पड़ौसी बाळकाँ खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे--
दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे।
बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे--
मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे॥

एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का--
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥

दोनूँ बाळक खील-खेलणाँ का करकै विश्वास गये--
माँ धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये।
माँ बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए--
फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए।

तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का--
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥

ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामाँ सौदा ना थ्याया--
भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया!
देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया--
छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया।

कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का।
आँख्याँ कै माँह आँसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का॥

--कवि नरसिंह

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